इन दिल्ली की गलियो में।
कुछ इस तरह से फिरते थे
हम् इन दिल्ली कि गलियो में
ना धूप की फिक्र ना भूख की।
रास्ता जिधर भी ले जाये
मंज़िल तो बस वही थी।
कारवां में शामिल सभी तो थे
कुछ इधर गए कुछ उधर गए
ना मालूम कौन किधर गया
हुम् ही अकेले निकल पड़े
इन दिल्ली की गलियो में
कुछ पुराने भिच्छाड गए
कुछ नवेले संघ हो चले
कुछ इश्क का शिकार हो गए
कुछ इश्क मैं शिकारी हो लिए
हम बस यूं ही अकेले चलते रहे
इन दिल्ली कि गलियों में
कुछ पढ़ लिख अफसर बन्न गए
कुछ ऑफिस के चक्कर काट रहे
कुछ खेती में लग लिए
कुछ हवाओं में उड़ चले।
हम बस आज भी मंज़िल की तलाश में
भटक रहे, इन दिल्ली की गलियों में।